बचपन

“बच्चों के नाजुक हाथों को चांद-सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे…”

निदा फाजली के इस शेर में आज की सच्चाई छुपी है। बच्चों के मन में छुपी कोमलता आज गायब है। भावनाओं की गगरी खाली होती जा रही है और उसमें जानकारी के कंकड़ बढ़ते जा रहे हैं। अब वे न चांद को मामा मानते हैं, न ही उन्हें घर के नीचे भूत नजर आता है और न ही बाबा ले जाएंगे की बात पर वे डरते हैं। उन्हें हर सच्चाई पता है। वे हर चीज को तर्क की तराजू पर तौल रहे हैं। यहां तक कि रिश्तों को भी। उन्होंने इंटरनेट पर बैठकर जमानेभर से जुडऩा तो सीख लिया, पर अपने दद्दू के पास दो पल के लिए बैठना पसंद नहीं, जिससे बातों-बातों में वे संस्कारों की घुट्टी पी सकें। सवाल उठता है क्या उनके इमोशंस को खत्म करके हम उन्हें इंटेलीजेंट कह पाएंगे?

“बचपन! बारिश की रिमझिम फुहारों-सा निर्मल, निश्छल , बहती नदी पर खेलती सूरज की ज्योतिर्मय किरणों- सा उज्ज्वल … बर्फीली चादरों से ढके पर्वतों पर खिलने को आतुर नन्ही कली- सा बचपन।“

आज यह बचपन कहीं गुम हो गया है। बच्चों को बड़प्पन की चादर ओढ़ा दी गई, धीर-गंभीर और श्रेष्ठता का चोला पहनते-पहनते बच्चे भूल गए हैं कि बचपना होता क्या है? आज के बच्चे बड़े सपने देखते हैं। वे कहते हैं, ‘मुझे सब है पता मेरी मां!’ जानकारियों के बोझ ने उनके बचपन को लील लिया है। बच्चों को लगता है कि यही जिंदगी है। पर क्या सिर्फ नॉलेज के बल पर बचपन को संवारा जा सकता है या फिर अपने आस-पास की दुनिया से जुड़कर, कल्पनाओं को परवाज देकर, कुदरत के साथ समय बिताकर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।

आज बचपन सिकुड़ता जा रहा है। बॉयोलॉजिकली तो वे बच्चे ही हैं, पर उनकी मेंटली एज बढ़ती जा रही है। मीडिया और इंटरनेट से वे नई चीजें तेजी से सीख रहे हैं। पहले दसवीं कक्षा के बच्चे को जो चीजें पता होती थीं, वे चीजें आज चौथी क्लास के बच्चों को मालूम हैं। दरअसल पहले बच्चे किताबों और घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी हासिल करते थे। एकल परिवारों के चलते घरों में बुजुर्ग भी नहीं रहते और माता-पिता नौकरी के कारण घर से बाहर रहते हैं। ऐसे में बच्चा किताबों की बजाय टीवी और इंटरनेट से जानकारी हासिल करता है। इन सबका गहरा असर उन पर होता है। शारीरिक विकास के मुकाबले मानसिक विकास तेजी से होने पर उनमें टेंशन घर करने लगते हैं।
अब जानकारी बच्चों के लिए बोझ बनती जा रही है। उनको अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का ना तो समय मिल रहा है और ना ही मौका। धीरे-धीरे वे भूलते जा रहे हैं कि ये उनके खेलने-कूदने, सीखने-समझने और नादानी करने के दिन हैं। माता-पिता उन पर अपनी इच्छाएं थोपे जा रहे हैं। कंपीटीशन इतना है कि उन्हें किताबों के सिवा कुछ नहीं सूझता। इससे वे मशीनी जिंदगी जीने लगे हैं और उनका इमोशनल कोशेंट कम हुआ है।

अब इसका असर क्या होगा ये तो हम सिर्फ अंदाज़ा लगा सकते हैं|

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